आदिवासी दिवस झारखंडी अस्मिता के संघर्ष का दिवस है

आदिवासी जनों को अपनी संस्कृति छोड़कर पराई संस्कृति को अपनाने के लिए मजबूर किया जा रहा है, इसे रोकना होगा

विशद कुमार 

पूरी दुनिया के इतिहास इस बात का गवाह हैं कि आदिवासी जनों का औपनिवेशीकरण किया गया. उन्हें गुलाम बनाया गया.अपनी संस्कृति छोड़कर पराई संस्कृति को अपनाने के लिए मजबूर किया गया. इतना ही नहीं उन्हें अन्य प्रकार के उत्पीड़नों का शिकार बनाया गया जिसका आदिवासी जनों ने अलग-अलग तरीकों से प्रतिरोध भी किया.दुनिया के अधिकतर राष्ट्र-राज्य आदिवासी जनों की मांगों को मानने से इनकार करते रहे हैं कि उनको अपनी जमीनों और भू-भागों में ही रहने दिया जाये जो उनकी सामाजिक ब्यवस्थाओं,संस्कृति और पहचान के आधार हैं.

उक्त बातें अंतर्राष्ट्रीय आदिवासी दिवस के मौके पर आयोजित कार्यक्रम में सामाजिक कार्यकर्ता जेम्स हेरेंज ने कही.    कार्यक्रम की शुरुआत स्थानीय हाई स्कूल मैदान मनिका अंचल के विभिन्न गांवों से बड़ी सख्या में महिला पुरुष एकत्रित हुए. सभी लोग पारम्परिक आदिवासी वेश-भूषा पहने हुए थे. ढोल नगाड़ों के साथ आदिवासी नृत्य जुलुस करते हुए तथा तख्तियों में एक तीर, एक कमान! सभी आदिवासी एक समान, जल, जंगल की लूट, नहीं किसी को इसकी छूट, दुनिया के आदिवासी, एक हों, आदिवासी ही इस देश के अलसी मालिक हैं, हम आदिवासी हैं, देश के मूल निवासी हैं आदि नारे लगाते हुए सभी प्रखण्ड परिसर पहुंचे जहाँ जनसभा संपन्न हुई.

सभा के दौरान बिरसा मुण्डा स्कूल बरवाईया के स्कूली बच्चों ने रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम पेश किये. सधवाडीह के ग्रामीणों ने करमाही टोला में चल रहे पत्थर उत्खनन पट्टा को पूर्णत: अवैध करार देते हुए बताया कि आदिवासियों के सामुदायिक अधिकारों पर यह खनन कार्य सीधा हमला है. बरियातू गाँव के दीपू सिंह ने अपने ग्राम सभा के जरिये गाँव सीमा क्षेत्र के जंगल को सामुदायिक पहरेदारों के जरिये पिछले 10 सालों से बचाए जाने की बात रखी. ऐसे सद्प्रयास डोंकी और सधवाडीह गाँव में भी किये जा रहे हैं. ऐसे प्रयासों से उनकी संस्कृति, जीविका और पर्यावरण सभी का संरक्षण किये जा रहे हैं.  जिला परिषद् सदस्य, बलवंत सिंह ने कहा कि केंद्र की भाजपा सरकार आज आजादी के 75वें वर्ष में अमृत महोत्सव मना रही है.

वहीँ दूसरी तरफ आदिवासियों को हासिये पर धकेलने की पूरी साजिशें रच डाली है. बेरोजगारी, गरीबी, शोषण, उत्पीडन, मानव तस्करी, घरेलू नौकरानी जैसी परिस्थितियां जान – बुझ कर पैदा हैं. ऐसे विपरीत परिस्थिति में संघर्ष एकमात्र रास्ता है, जिसके मार्फ़त हम अपने अस्तित्व को बचाए रखने में कामयाब हो पाएंगे.

नामुदाग की पूर्व मुखिया श्यामा सिंह ने संघर्ष के लिए महिलाओं को आगे आने का आह्वान किया. सामाजिक कार्यकर्ता विश्वनाथ महतो ने कहा कि हम आदिवासी लोग सह अस्तित्व के दर्शन को यथार्थ में संजोये हुए हैं. हमारी बांसुरी की धुन जब सुदूर जंगलों में गूंजती है तो हर प्रकार के जीव जन्तु, जानवरों में भी उर्जा का संचार होने लगता है. हमने जंगल, जमीन, पानी, पहाड़ सहित तमाम प्राकृतिक संसाधनों की रक्षा सदियों से करते रहे हैं. यह बेहद गर्व की बात है.  

भाकपा (माले) के धनेश्वर सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि अंचल क्षेत्र में अवैध खनन एक गंभीर मुद्दा बनकर उभरा है. जिसे हम सबों को मिलकर लड़ाई लड़ना होगा.

सभा के दौरान लोकगायक पटना के मनोज सिंह ने गाँव छोड़ब नहीं, हम आदिवासी इस देश के मूलनिवासी” जैसे क्रांतिकारी गीत गाकर उपस्थित जनसमूह को उर्जान्वित किया.  अंत में सबों ने संघर्ष की परम्परा को तेज करने का संकल्प लेते हुए अपने घरों को विदा लिए. कार्यक्रम का संचालन लालबिहारी सिंह ने की.

इस ऐतिहासिक दिवस पर ननकू सिंह, पचाठी सिंह, कविता देवी, शिवलाल उराँव, राजेन्द्र सिंह, अमरदयाल सिंह, प्रेमा तिग्गा, दिलीप रजक, ग्राम प्रधान राजेश्वर सिंह, सोनिया देवी, जीतेन्द्र सिंह, सुभाष चन्द्र, भाकपा (माले) के मुनेश्वर सिंह एवं अजय यादव, ग्राम स्वराज मजदूर संघ के अध्यक्ष कमलेश उराँव, दीपू सिंह आदि उपस्थित थे. 

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