भारत को स्वाधीनता किसने दिलवाई या किसके कारण मिली…? चरखा चलाने से सूत जरूर मिलता है, पर स्वतंत्रता…?

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चरखा चला चला के लेंगे स्वराज्य… लेंगे स्वराज्य…

दे दी हमें आजादी, बिना खड़ग बिना ढाल…

एसे ही कई बचकाने शब्दों से रचे गए भावविभोर गीतों द्वारा हमें हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास के बारे में बताया हया है। गांधी जी और नेहरू जी ने अहिंसा के मार्ग को अपनाते हुए भारत को स्वाधीनता दिलाई यह कथन अब त्रिकालबाधित शाश्वत सत्य के रूप में स्थापित हो चुका है। यह इतना द्रढ बन चुका है कि अब इसके बारे में किसी भी तरह का प्रश्न उठाने या संदेह करने की भी किसी की हिम्मत नहीं होती और यदि हो भी गई तो उसे प्रतिगामी या देशद्रोही कहकर उसका सार्वजनिक जीवन से नामोनिशान ही मिटा दिया जाता है। पिछले कुछ वर्षो से कई शोधकर्ता इस विषय के प्रति अपनी जिज्ञासाएँ सामने रख रहे हैं। शोधकार्य किया जा रहा है और उनसे प्राप्त निष्कर्ष हमारी अब तक की मान्यताओं से बहुत अलग ही नहीं बल्कि उन्हें एक तरह से धक्का देने वाले है।

तो फिर भारत को स्वाधीनता किसने दिलवाई या किसके कारण मिली…? क्या कांग्रेस के अहिंसक आंदोलन के कारण…? या फिर सशस्त्र क्रांतिकारियों के बलिदान के कारण…? या फिर अन्य किसी कारण से…???

भारत में एसी कौन सी घटनाओं का निरंतर क्रम चला जिसका आवेग बढ़ते जाने के कारण निश्चित कालावधि में स्वाधीनता मिली। लंबे समय तक चलने वाले स्वतंत्रता संग्राम में हमें तीन प्रमुख प्रवाह दिखते है। क्रांतिकारियों द्वारा चलाया गया सशस्त्र आंदोलन, दुसरा कांग्रेस के नेतृत्व में अहिंसा का पालन करते हुए चलाया गाय आंदोलन और तीसरा अँग्रेजी फौज में शामिल भारतीय सैनिकों द्वारा की गई बगावत। इन तीनों प्रवाह का यदि संक्षेप में विश्लेषण किया जाए तो क्या हमें इस प्रश्न का उत्तर मिल सकता है कि, भारत को निश्चित तौर पर किसने स्वाधीनता दिलवाई…???

आजाद भारत के हमारे पहले प्रधानमंत्री नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी की आज १२६वीं जन्म जयंती के उपलक्ष में आइए जानते है कि उनके नेतृत्व वाली आजाद हिंद फौज का हमारी स्वतंत्रता के लिए क्या योगदान रहा है…

आजाद हिंद फौज का आविष्कार कैसे और क्यों हुआ इस विषय को विशेष रूप से जानने के लिए सबसे पहले हमें अंग्रेजों की फौज में शामिल भारतीय सैनिकों को बगावत के लिए प्रेरित करने वाले ‘गदर आंदोलन’ के बारे में जानना चाहिए…

गदर आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सही अर्थो में एक सोमंचक साहसी और वैश्विक अध्याय था। इसके तहत विदेशों में रहने वालें बेहद चतुर, सामर्थ्यवान भारतीय युवकों ने सोच समझकर एक योजना बनाई थी। यह योजना पहले विश्वयुध्ध में ब्रिटेन के खिलाफ लड़ने वाले देशों से हाथ मिलाकर ब्रिटेन की ओर से युद्ध में भाग लेने वाले तेरह लाख भारतीय सैनिकों को बगावत के लिए प्रेरित करने की थी। इस बगावत के लिए जिस प्रकार की योजना बनाई गई थी उसकी संरचना और नियोजन बहुत व्यापक और गहन अध्ययन पर आधारित था। इसके सफल होने की बहुत संभावना दिखाई पड़ती थी। यदि ऐसा हो जाता तो भारत को  १९२० के पहले ही स्वतंत्रता प्राप्त हो जाती।

Lala-Hardayal
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लाला हरदयाल जी ने १९१२ में ‘गदर पार्टी’ की स्थापना की थी। अमेरिका और कनाडा के सीख युवाओं द्वारा स्थापित की गई पार्टी का नाम ही उन्होंने खुद की पार्टी के लिए चुना था। उनके प्रारंभिक सहकर्मी थे पांडुरंग सदाशिव खानखोजें, तारकनाथ दास, करतर सिंह सराभा और विष्णु गणेश पिंगले। ये सभी बर्कले में यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के विद्यार्थी थे। अमेरिका, यूरोप और एशिया के अन्य युवाओं से संपर्क बनाने के लिए उन्होंने लॉस एंजिल्स, ऑक्सफोर्ड, विएना, शंघाई जैसे कई शहरों में बैठकें आयोजित की। उनका उद्देश भारतीय जवानों को सशस्त्र क्रांति के लिए प्रेरित करके स्वतंत्रता प्राप्त करने का था। सैन फ्रांसिस्को में उन्होंने ‘हिंदुस्तान गदर’ नाम से समाचार पत्र भी खोला। भारतीय क्रांतिकारियों से संपर्क बनाते हुए उन्होंने ‘हिंदुस्तान गदर’ की भारतीय आवृति भी प्रारंभ की। रास बिहारी बोस जी भारत में इस गदर पार्टी के प्रमुख सदस्य थे।

ras_bihari_bosh_and_sachindra_sanyal
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पहले विश्वयुद्ध में भारतीय सैनिक बड़ी संख्या में दुनिया भर के मोर्चो पर लड़ रहे थे लेकिन भारत में इनकी संख्या बेहद कम थी। इस अवसर का फायदा उठाते हुए भारत के सैनिकों को बगावत के लिए प्रेरित कर भारत से अँग्रेजी शासन उखाड़ फेंकने की गदर पार्टी की योजना थी। गदर पार्टी के बहुत से सदस्य विदेशों से भारत आ चुके थे और स्थानीय सदस्यों के साथ मिलकर अँग्रेजी फौज में भरती हिंदुस्तानी सैनिकों से संपर्क बनाने की कोशिश कर रहे थे। शचींद्रनाथ सान्याल, रास बिहारी बोस और विष्णु गणेश पिंगले के नेतृत्व में देश के अनेक भागों में गदर पार्टी के आंदोलन का जाल बिछने लगा था। इन नौजवान क्रांतिकारियों ने योजना बनाई थी कि, देश विदेश सभी जगह योजनाबद्ध तरीके से एक ही समय पर बगावत करके अँग्रेजी शासन की नींव हिला देंगे। २१ फरवरी १९१५ को पूरे भारत में एक ही समय पर क्रांति का बिगुल बजाने की योजना थी। लाला हरदयाल और बर्लिन कमेटी के पी.टी. आचार्य ने बगदाद, सीरिया, मिस्र आदि देशों में तैनात भारतीय सैनिकों से मुलाक़ात की और उन्हे बगावत के लिए तैयार किया। खानखोजे और पी.एन. दत्त ने मेसोपोटामिया, ईरान और मिस्र के भारतीय सैनिकों के बीच इस बात के लिए प्रचार किया कि, वे स्वेज़ नहर का मुहाना बंद कर दें। वहीं सिंगापूर स्थित पाँचवीं लाइट इन्फेंट्री के ८५० सैनिकों ने १५ फरवरी १९१५ को बगावत कराते हुए ४७ ब्रिटिश अधिकारियों को मार गिराया।

पहले विश्वयुद्ध के मद्दे नजर अंग्रेज़ सरकार का गुप्तचर संगठन बेहद दक्षता और कुशलता से काम कर रहा था। उसने गदर पार्टी की सभी योहनाओं और बगावत के मंसूबों के बारे में पूरी-पूरी खबर प्राप्त की। अपने गुप्तचरों का जाल बिछते हुए उनकी कार्यवाही पर पैनी नजर बनाए रखी और समय रहते ही पूरी योजना ध्वस्त करदी। सिंगापूर की बगावत के बाद ८०० सैनिकों को जेल या मृत्युदंड मिला। भारत में बगावत में शामिल हुए २९१ क्रांतिकारियों पर लाहौर कॉन्सपिरेसी केस चलाया गया और अप्रेल १९१५ को ४२ क्रांतिकारियों को फाँसी की सजा सुनाई गई तो ११४ क्रांतिकारियों को आजीवन कारावास और ९३ क्रांतिकारियों को जेल की सजा सुनाई गई। कईयों को कालापानी की सजा देकर अंडमान भेज दिया गया। बनारस, शिमला, दिल्ली, फिरोजपुर, सैन फ्रांसिस्को में भी मुकदमे चलाए गए। इस प्रकार की बगावत आगे न हो और यदि हुई तो उसे तुरंत दबाया जा सके इस लिहाज से ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट १९१५’ और ‘रौलट एक्ट १९१९’ जैसे कड़े और अत्याचारी कानून बनाए गए।

यह दुर्भाग्य की बात है कि लाला हरदयाल, पांडुरंग सदाशिव खानखोजे, शचींद्रनाथ सान्याल, रास बिहारी बॉस, विष्णु गणेश पिंगले जैसे दिग्गज नाम हमारे भारतीय इतिहास में सोने के अक्षरों में लिखे जाने चाहिए थे लेकिन आज गुमनाम से हो गए हैं। स्वतंत्रता के पहले ही अहिंसात्मक आंदोलन के प्रभाव के कारण सशस्त्र क्रांति करने वाले क्रांतिकारियों की इतनी उपेक्षा की जाने लगी कि, १९३९ में जब लाला हरदयाल की फिलाडेल्फिया में मृत्यु हुई तब भारत के प्रचार-प्रसार माध्यमों ने इसके बारे में कोई सूचना भी नहीं दी। हमारे भारतीय स्कूलों के इतिहास में इंदिरा गांधी द्वारा इलाहाबाद में बचपन में बच्चों को जमा करके वानर सेना बनाए जाने का पाठ तो पढ़ाया जाता है लेकिन भारत की स्वतंत्रता की घोषणा पूरे विश्व में करने वाली गदर पार्टी के क्रांति के बारे में उल्लेख भी नहीं मिलता। इसे सिर्फ भ्रांत नहीं बल्कि विकृति कहना ज्यादा सही होगा।

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गदर क्रांति के कारण स्वतंत्रता भले ही न मिली हो लेकिन भारतीय सैनिक यदि बगावत करने पर उतर आए तो अंग्रेजी शासन का क्या हश्न हो सकता है यह बात अंग्रेजों को १८५७ की क्रांति के बाद फिर एक बार मालूम हो गई। गदर पार्टी की यह क्रांति अंग्रेजों को बेहद डराने वाली साथ ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की एक महत्वपूर्ण लड़ाई थी। इस क्रांति ने रास विहारी बोस और सुभाष चन्द्र बोस को दूसरे विश्वयुद्ध के समय “आजाद हिंद फौज” की स्थापना की प्रेरणा दी…

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ई.स. १९३९ में शरू हुए द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटन की तरफ से युद्ध लड़ने के लिए भारत ने २.५  मिलियन सैनिकों का योगदान था, यह दुनिया के इतिहास में सबसे बड़ी स्वयंसेवक सेना थी। सुभाष चंद्र बोस इस वक्त कांग्रेस के अध्यक्ष थे। नेताजी का मानना था कि, इस युद्ध के जरिए हम आसानी से ब्रिटन के दुश्मनों तक पहोंच सकते है। इस के बाद जर्मनी और जापान की मदद लेकर भारत को आजाद करवाया जा सकता है। गांधी जी उनके इस विचार के घोर विरोधी थे, गांधी जी ने विरोध कराते हुए सुनिश्चित किया कि, बोस अपने दूसरे कार्यकाल के लिए दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष न बनें। नेताजी और गांधी जी के मौलिक भिन्नता के चलते वह १९४१ में अंग्रेजों की नजरकैद से बचते बचते बड़े नाटकीय ढंग से जर्मनी पहुँचे। नेताजी के जर्मनी पहुँचने पर जर्मनी के विदेश मंत्री रिबनट्रोप ने उनका स्वागत किया। तभी हिटलर से भी उनकी मुलाक़ात हुई। नेताजी द्वारा बर्लिन में फ्री इंडिया सेंटर और फ्री इंडिया रेडियो की शरूआत की गई। इस रेडियो से नेताजी के भारत की स्वतंत्रता का प्रण करने वाले भाषण को सुनकर भारत में चेतना की नई लहर उठी। नेताजी की योजना थी कि एशिया में रोमेल के जर्मन सौनिकों द्वारा बंदी बनाए हुए ३००० भारतीय सैनिकों के साथ अन्य सैनिक और जर्मन सैनिकों द्वारा भारत पर आक्रमण किया जाए ताकि भारत को स्वतंत्रता दिलाई जा सके। लेकिन जर्मनी सेना रूस के मोर्चे पर बड़ी संख्या में लड़ रही थी इसलिए उसे भारत की ओर नया मोर्चा खोलने में परेशानी हो रही थी। उधर जापान एशिया में एक के बाद एक क्षेत्र पर कब्जा कराते हुए तेजी से भारत की ओर बढ़ रहा था। उसी समय जापान में कैद भारतीय सैनिकों को लेकर रास बिहारी बोस जी ने १ सितंबर, १९४२ को इंडिया इंडिपेंडेस लीग की सेना यानि इंडियन नेशनल आर्मी-आजाद हिंद फौज की स्थापना की।

रास बिहारी बोस जी ने इंडियन नेशनल आर्मी और आजाद हिंद फौज(आईएनए) की स्थापना इस विचार से की थी कि, इस सेना को सुभाष चंद्र बॉस जैसे लोकप्रिय, कर्तव्यदक्ष और प्रेरणा के स्त्रोत से मार्गदर्शन मिलेगा तो भारत की स्वतंत्रता का लक्ष्य निश्चित ही प्राप्त हो सकेगा, इसी विचार से उन्होंने सुभाष चंद्र बोस को जापान आने का निमंत्रण दिया। उनसे सेना का नेतृत्व संभालने की बिनती की। इसके पहले रास बिहारी बोस ने सेना के मन में स्वतंत्रता की इच्छा जगाकर भारत माँ को स्वतंत्र करवाने के लिए गदर क्रांति के माध्यम से प्रयत्न किया था। उनका वीर सावरकर से नियमित पत्राचार हुआ करता था। यह योजना सफल हो इस के लिए ज्यादा से ज्यादा हिंदू नौजवान सेना में भर्ती करने के लिए वीर सावरकर ने अथक प्रयत्न किए थे। इस विषय में रास बिहारी बोस ने वीर सावरकर के प्रति आभार भी प्रकट किया था। १९३८ में हिंदू महासभा की शाखा जापान में शरू करने की रास बिहारी बोस की तैयारी भी थी। अनेक वर्षो से साधना में जूते इन दोनों भक्तो की इच्छा थी कि इस लड़ाई का नेतृत्व सुभाष चंद्र बोस करें। सुभाषबाबू ने जब देखा कि जर्मनी में रहते हुए भारत की स्वतंत्रता की दृष्टि से कुछ ज्यादा काम नहीं हो पा रहा है तब १९४३ में उन्होंने एक साहसी निर्णय लिया। वे जर्मनी की यू-१८० पनडुब्बी से केप ऑफ गुड हॉप का चक्कर लगाते हुए मेडागास्कर तक पहुँच गए। वहाँ से उन्होंने जापान की आई-२९ पनडुब्बी से जापान तक की यात्रा की। बेहद कठिन यात्रा कराते हुए ९ फरवरी, १९४३ को जर्मनी से निकले हुए नेताजी ११ मई, १९४३ को आखिर टोकियो पहुँच गए।

जुलाई १९४३ को सिंगापूर पहुँचने के बाद ४ जुलाई को उन्होंने इंडियन इंडिपेंडेस लीग और आजाद हिंद फौज का काम संभाला। उनके नारे ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूँगा’ ने सिंगापूर में भारतियों के मन में देशप्रेम की भावना प्रबल कर दी। उनके इस कार्य में उन्हे सहायता और योगदान करने के लिए लोग उमड़ पड़े। महिलाओं ने अपने सभी गहने और आभूषण सुभाष चंद्र बोस के झोली में डाल दिए। लोगों ने पैसों की बारिश कर दी। नेताजी के हाथों में भारत के उज्ज्वल भविष्य को देखते हुए लोगों ने सारी सहायता बगैर किसी दबाव के उसपर प्रेम और विश्वास के कारण की थी। देखते ही देखते इंडियन इंडिपेंडेस लीग के सदस्यों की संख्या ३,५०,००० पार कर गई। वही जापान के कब्जे में ६०,००० हिंदी सैनिकों को आजाद हिंद फौज में शामिल किया गया। नेताजी ने ४५ भारतीय नौजवानों को चुनकर आजाद हिंद फौज की युवा शाखा शरू की। इन नौजवानों को टोकियो बोयज के नाम से पहचाना जाता था। उन्हे जापान की इंपीरियल मिलिट्री एकेडमी में फाइटर पायलट का प्रशिक्षण लेने के लिए भेजा गया। कर्नल लक्ष्मी सहगल के नेतृत्व में फौज का महिला विभाग, रानी लक्ष्मी रेकीमेंट भी बनाई गई। रास बिहारी बोस का सालों देखा हुआ सपना साकार होता नजर आने लगा। भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ने वाली अब एक सशस्त्र प्रशिक्षण सेना खड़ी हो चुकी थी। इन सबके पीछे जो जादुई शक्ति थी उनका नाम था “सुभाष चंद्र बोस”

अक्तूबर १९४३ को नेताजी ने भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की। इस सरकार को जापान, इटली, जर्मनी, चीन, फिलिपीन्स, बर्मा, थाइलैंड और मंचूरिया आदि देशों द्वारा स्वतंत्र भारत की सार्वभौमिल सरकार के रूप में मान्यता भी दी गई। ६ नवंबर, १९४३ को जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो ने अंडमान और निकोबार द्वीप आजाद हिंद सरकार को हस्तांतरित किए जाने की घोषणा की। २३ अक्टूबर, १९४३ को अँग्रेजी सरकार से युद्ध के लिए आजाद हिंद सरकार ने अपनी आजाद हिंद फौज को “चलो दिल्ली” नाम का युद्धघोष दिया। २९ दिसंबर, १९४३ को नेताजी अंडमान के पोर्ट ब्लेयर में पधारे। वहाँ उपस्थित जापानी नौसेना और जनता ने उनका भव्य स्वागत किया। ३० दिसंबर को वहाँ जिमख़ाना प्रांगण पर आजाद हिंद का ध्वज फहराया गया। अंडमान और निकोबार को उन्होंने क्रमश शहीद द्वीप और स्वराज द्वीप नाम दिया। अब आजाद हिंद सरकार का भारत के एक भाग पर पूर्ण अधिकार था। आजाद हिंद सरकार के पास अब स्वयं की भूमि, पैसा और शासन था। इसलिए हम कह सकते हैं कि, यह स्वतंत्र भारत की पहली सरकार थी।

            मार्च से जून १९४४ के बीच इम्फाल और कोहिमा में जापानी सेना और आजाद हिंद सेना का अँग्रेजी सेना से कडा मुक़ाबला हुआ। ऐसा कहा जाता है कि, दूसरे विश्वयुद्ध का यह सबसे भीषण संग्राम था। इस लड़ाई में आजाद हिंद सेना के २६,००० सैनिक काम आए। आजाद हिंद सेना के जवानों ने अपनी पूरी ताकत से यह युद्ध लड़ा लेकिन तब तक महायुद्ध की तस्वीर बदलने लगी थी। आसमान पर अंग्रेजों की वायुसेना का पूरा अधिकार और नियंत्रण था। जर्मनी और जापान दोनों ही अब पीछे हटने लगे थे। एसी स्थिति में जापानी सेना और आजाद हिंद फौज को एक बड़ी हार गले उतारनी पड़ी। ६ और ९ अगस्त, १९४५ को अमेरिका ने जापान पर दो अणुबम गिराए एसके बाद जापान ने पूरी तरह हार स्वीकार कर ली और दूसरा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया। इसी के साथ आजाद हिंद फौज की लड़ाई भी खत्म हो गई। हालाकी आजाद हिंद फौज हार गई फिर भी उससे घटनाओं की एसी शृंखला बनी जिसकी परिणिति आवश्यक रूप से भारत की स्वाधीनता में हुई। १८ अगस्त, १९४५ को घोषणा की गई कि, ताइपेई के हवाई जहाज के दुर्घटना में नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मृत्यु हो गई लेकिन इन खबर पर किसी को विश्वास नहीं हो रहा था। लोगों को यहीं लग रहा था कि युद्ध बंदी के रूप में उन पर मुकदमा न चलाया जाए इसीलिए नेताजी एक बार फिर अंग्रेजों के चंगुल से निकलकर भूमिगत हो गए थे। लेकिन नहेरु जी और बाद की कांग्रेस सरकारों ने नेताजी के विमान दुर्घटना में मृत्यु की कहानी को बड़ी अधिरता से अधिकृत इतिहास के रूप में स्वीकार कर लिया। उनके द्वारा संगठित दोनों आयोगों ने अपनी खोजबीन के बाद यही नतीजा सामने रखा। १९९९ में कलकत्ता के हाईकोर्ट के आदेश पर बाजपाई जी की सरकार ने मुखर्जी आयोग गठित किया जिसने दोनों आयोगों की रिपोर्ट को निरस्त किया। इस आयोग की रिपोर्ट के अनुसार १७ अगस्त १९४५ को सायगांव में विमान चढ़ने के बाद नेताजी लापता हो गए और उसके बाद जापान की सरकार ने विमान दुर्घटना में उनके शव के दहन का एक नाटक रचकर उन्हें भूमिगत होने में सहायता की।

उन्हें विश्वास था की स्वाधीन भारत में कांग्रेस सरकार उन्हें किसी तरह का संरक्षण नहीं देगी। बल्कि उन्हें अंग्रेजों के हवाले जरूर कर देगी इसलिए वे कभी भी प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आए। भूमिगत नेताजी की खबर पाने के लिए सरकार द्वारा अगले २० वर्षो तक नेताजी के परिवार पर हमेशा नजर रखी गई। हमारे पुरणों में उल्लेख मिलात है कि, देवों के राजा इंद्र हमेशा इस असुरक्षा से घिरे रहते थे कि कहीं कोई उनका राज्य हड़प न ले। वे अक्सर ऋषियों की तपस्या भंग करने के लिए अप्सराओं को भेजा कराते थे। हो सकता है नेहरू जी को भी सुभाष चंद्र बोस की लोकप्रियता और सरदार पटेल की कार्यक्षमता व  कुशलता के प्रति असुरक्षा की भावना हो। वैसे भी सरदार पटेल का महत्व उनके पिता और गांधी जी की कृपा से कम हो ही गया था। नेताजी यदि प्रकट होते हैं तो उनकी लोकप्रियता को देखते हुए कहीं सिंहासन न छिन जाए इस डर से नहेरु जी ने इस प्रकरण में हमेशा कृतघ्नता भरा बर्ताव किया। इसी एक डर के चलते नेताजी की मृत्यु की अफवाह को उन्होंने पत्थर पर खींची लकीर के रूप में परिवर्तित कर दिया और किसी शक की गुज्जईश न रहे ऐसे पूरी तरह से बंदोबस्त किया। फिर भी सवाल उठाते ही रहे। उनके मन की कृपणता इतनी बढ़ी कि ११ फरवरी, १९४९ को मेजर जनरल पी. एन. खंडूरी के हस्ताक्षर से एक आदेश जारी किया गया, जिसके अनुसार किसी भी सरकारी संस्था में नेताजी की तस्वीर लगाने पर मनाई कर दी गई। इस विषय में और अधिक जानकारी के लिए अनुज धर जी की लिखित “इंडियाज़ बीगेस्ट कवरअप” पुस्तक पढ़ने लायक है।

            क्रांति में हार जाने के बाद आजाद हिंद सेना के १६,००० सैनिकों और अधिकारियों को कैद करके अंग्रेज़ सरकार ने मुकदमा चलाया। इन सैनिकों को निलगंज, बहादुरगढ़, खड़की, अटक, मुल्तान की अस्थायी जेलों में बंदी बनाकर रखा गया। जीत के नशे में चूर अंग्रेजों ने इन कैदियों पर मुकदमा चलाकर उन्हें सजा देने का निश्चय किया। उनकी योजना थी कि, मुकदमा चलाकर वे भारत की जनता के सामने आजाद हिंद सेना के सैनिकों द्वारा देशद्रोह किया गया है यह साबित कर देंगे। सबसे पहले आजाद हिंद फौज के तीन वरिष्ठतम अधिकारियों शाहनवाज़ खान, प्रेम सहगल और गुरबख्श ढिल्लों पर इंग्लैंड के राजा के विरूध्ध युद्ध करने का आरोप लगाया गया। उन्हें सार्वजनिक तौर से अपमानित करने के लिए यह मुकदमा दिल्ली के लाल किले में चलाया गया। उनकी मंशा इस मुकदमे के द्वारा अंग्रेज़ शासन के विरूध्ध बगावत करने के परिणाम भारतीय सैनिकों को जता देने की थी। अंग्रेज़ इस घटना को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करना चाह रहे थे ताकि भविष्य में सुभाष चंद्र बोस या आजाद हिंद फौज दोबारा न बन सकें। लेकिन परिणाम इसके ठीक उल्टा हुआ। पूरे देश में क्रोध की लहर उठी और जगह-जगह सरकार के विरूध्ध हिंसक प्रतिक्रियाएँ दी जाने लगीं। दिल्ली, कलकत्ता, मुंबई, कराची सभी जगह देश के लाखों लोगों ने स्वप्रेरणा से प्रदर्शन शरू किए। कलकत्ता में एक लाख से अधिक लोग सड़कों पर उतार आए। पुलिस की गोलीबारी करने के बावजूद वे पीछे नहीं हट रहे थे। गांधी जी द्वारा आयोजित किसी भी कांग्रेसी आंदोलन में कभीभी इतनी संख्या में लोग नहीं जुटे थे। लोगों की प्रतिक्रियाएँ और उनका जोश देखकर अंग्रेज़ शासन घबरा गया। उनके लिए सबसे ज्यादा परेशान करने वाला विषय था भारतीय सशस्त्र दलों में पैदा हुई आशकाएँ और गुस्सा। पूरा देश सुभाष चंद्र बोस और आजाद हिंद फौज को महानायक मानता था और उनके प्रति असीम आदर और प्रेम की भावना परमोच्च स्तर पर पहुँच चुकी थी।

अंग्रेजों के मंसूबे थे कि आजाद हिंद फौज के अधिकारियों पर मुकदमे चलाकर वे विद्रोह करने के परिणाम को हिन्दी सैनिकों के सामने रख सकेंगे। लेकिन उनका यह पासा उल्टा ही पड़ गया। अंग्रेजों को इस बात का अहसास हुआ कि उनके मंसूबे तो पूरे नहीं हुए उल्टे देशवासीयों और हिंदी सैनिकों को आजाद हिंद फौज के सेना द्वारा किए गए बलिदान की पूरी-पूरी जानकारी मिल गई। हिंदी सैनिक जिन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में अंग्रेजों की तरफ से युद्ध किया था उनके मन में अपराधबोध की भावना जागृत हुई। उन्हें अपने किए का पछतावा होने लगा कि, ये सैनिक सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में भारत माँ की स्वतंत्रता के लिए बलिदान दे रहे थे और वे अंग्रेजों की तरफ से युद्ध में लड़ रहे थे। अंग्रेजों की भी समझ में आ गया कि जो अँग्रेजी शासन हिंदी सैनिकों से भरी सेना के बलबूते पर टिका था अब उस पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता। इस पूरे घटनाक्रम से सुभाष चंद्र बोस की छवि आसमान को छूने लगी और भारतीय स्वतंत्रता की चर्चा उनके इर्द-गिर्द ही घूमने लगी। माइकल एडवडर्स अपनी पुस्तक लास्ट इयर्स ऑफ ब्रिटिश इंडिया में लिखते है…”भारत सरकार ने यह सोचा था कि, आजाद हिंद सेना के जवानों के विरूध्ध मुकदमा चलकर वे भारत की सेना का मनोबल मजबूत कर सकेंगे। लेकिन इससे केवल बेचैनी पैदा हुई, अगर बोस और उनके साथी सही थे और सारा देश अब यही मान रहा था, तो भारतीय सेना के जवान गलत पक्ष से लड़ रहे थे और उन्होंने ब्रिटीशों का साथ दिया, यहीं सोच कर सिपाहियों के मन में शर्म सी जाग गई। भारत सरकार को धीर-धीरे यह अहसास होने लगा कि, भारतीय सेना जो ब्रिटिश राज की रीढ़ की हड्डी थी अब भरोसेमंद नहीं रही थी। सुभाष चंद्र बोस का साया हेम्लेट के बाप की तरह लाल किले में मंडराने लगा और उन की प्रतिमा ने विशाल रूप धारण कर स्वतंत्रता की सारी चर्चा को अभिभूत कर दिया।”

भारत के वाइसरॉय लॉर्ड वेवल और सेना प्रमुख जनरल औशिनलेक को अपनी गलती का एहसास हुआ। भारतियों की भावनाओं की तीव्रता और पूरी परिस्थिति की गंभीरता उनके समझ में आ गई। उस समय द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अँग्रेजी फौज बेहद थकी हुई थी और सैनिक घर वापस लौटना चाह रहे थे। वहीं विश्वयुद्ध के समाप्त होने के बाद पच्चीस लाख भारतीय सैनिक अपनी सेवाएँ खत्म करके अपने घरों को लौट रहे थे। अंग्रेजों को पूरी तरह समझ आ गया कि यदि इस समय जबकि लाल किले में मुकदमे चल रहे हैं ऐसे में यदि इन पच्चीस लाख भारतीय सैनिकों ने अग्रेजों के खिलाफ बगावत छेड़ दी तो इस क्रांति को बुझाना मुट्ठी भर अंग्रेज़ सैनिकों के लिए संभव ही नहीं होगा। चुटकी में भारत में अँग्रेजी राज खत्म हो जाएगा। ब्रिटिश शासन में यह घबराहट साफ देखि जाने लगी। १८५७ में हुए कत्लेआम की तस्वीरें उनके सामने आ खड़ी हुई। उन्होंने भारत मे मौजूद ९०,००० ब्रिटिश अधिकारियों और उनके परिवारजनों को भारत से बाहर ले जाने का निर्णय किया। प्रेम सहगल, शहनवाज खान और गुरबख्श ढिल्लों को सुनाई गई फाँसी की सजा औशिनलेक ने आनन-फानन रद्द कर दी। उस अनुभवी सैनिक ने यह समझ लिया था कि, अंगारो में धधक रही क्रांति की आग इस फाँसी से ज्वाला का रूप ही ले लेगी।

भारत सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गए दस्तावेजों में से यह परिच्छेद बहुत कुछ कहता है… “लेकिन अगर भारत के सशस्त्र दल निष्ठावान नहीं रहते हैं तो हमें भारत में पाँच ब्रिटिश डिविजन्स भेजनी पड़ेंगी, या भारत से शर्मनाक वापसी करनी पड़ेगी। संयोगवश पाँच डिविजन्स उपलब्ध ही नहीं है क्योंकि सिपाहियों की गृहतूर अवस्था कि वजह से कई डिविजन्स घर भेजी जा रही है” सार्वजनिक रूप से उपलब्ध कराए गए इस दस्तावेजों (डिक्लासिफाइड) से अंग्रेज़ अधिकारियों के बीच फैले डर की पूरी तस्वीर खुल जाती है। इन पत्रों द्वारा लंदन में इंडिया ऑफिस और भारत में ब्रिटिश सरकार के बीच के विचारों का अंतर भी स्पष्ट दिखता है। एक तरफ लंदन में ब्रिटिश सरकार का विचार प्रबल था कि भारत में सत्ता कायम रहनी चाहिए, तो दूसरी ओर औशिनलेक का मानना था कि, भारत में १८५७ की तर्ज पर कभी भी परिस्थितियाँ विस्फोटक हो सकती हैं जिसमें अँग्रेजी शासन झुलस जाएगा। इसलिए जितना जल्द हो अब अंग्रेजों को भारत से निकल जाना चाहिए। १९४३ में अपना कार्यकाल पूरा करके इंग्लैंड वापस जाने वाले वाइसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने कहा था कि, ओर ३० वर्षोतक तो हम भारत में निश्चित रूप से रहेंगे। इसका मतलब अंग्रेजों का १९७३ तक भारत को स्वतंत्र करनेका कोई इरादा नहीं था। लंदन में एक वक्तव्य देते हुए ब्रिटिश सरकार का कहना था कि, “वेवेल और औशिनलेक बिना किसी कारण के डर का वातावरण बना रहे हैं। भयग्रस्त होकर ब्रिटिश साम्राज्य के मुकुट मणि समान भारत को इतने जल्दी स्वतंत्रता देनी जरूरी नहीं है।“ लंदन के इस वक्तव्य पर प्रतिक्रिया देते हुए लॉर्ड वेवेल ब्रिटिश सरकार को सत्य से परिचय कराते हुए कहते है… “अगर ब्रिटिश सरकार यह मानती है कि मेरे कहने में संतुलन या परिस्थिति का सही आंकलन नहीं है, या मैंने धीरज खो दिया है, तो उन का कर्तव्य बनाता है कि मुझे इससे अवगत कराएँ और मेरी जगह किसी ओर को भेजें। लेकिन अगर वे मेरे कहने की उपेक्षा कराते हैं तो वे खुद पर बहुत गंभीर ज़िम्मेदारी ले रहे हैं।“ भारत में स्थितियाँ काफी गंभीर हैं जिसके कारण स्वतंत्रता देने का निर्णय आगे ढकेलने में खतरा है, उनके इस कथन का इशारा आजाद हिंद फौज के अधिकारियों पर चलाए गए मुकदमे से बनी विस्फोटक परिस्थितियों की ओर था।

स्वयं वाइसरॉय वार्ड वेवेल ने ब्रिटन के विदेश मंत्री को भेजी गई रिपोर्ट में दिल्ली में लगाए गए रक्त से लिखे एक पोस्टर का उल्लेख करते हुए लिखा था कि, यहाँ लोगों ने अपने रक्त से पोस्टरों में लिखा है यदि आजाद हिंद फौज के एक भी जवान को फाँसी दी गई तो हम २० अँग्रेजी कुत्तों पर गोली चलाएँगे। आजाद हिंद सेना के अधिकारियों पर चलाए गए मुकदमों के कारण यदि भड़के हुए हिंद सैनिकों ने बगावत करा दी तो उसकी लपटें पूरे ब्रिटिश साम्राज्य को भस्म कर डालेंगी, स्पष्ट है कि ब्रिटिश सेना के सर्वोच्च पद पर आसीन अधिकारी को यह डर साता रहा था। वेवेल और औशिकलेक को जिस बात का डर लग रहा था अंततः वैसा ही हुआ। भारतीय सशस्त्र दलों में एक के बाद एक होने वाली बगावत ने अँग्रेजी शासन व्यवस्था को हिलाकर रख दिया।

१९४२ के आंदोलन का पूरी तरह से असफल हो जाने के कारण निस्तेज हुई कांग्रेस की दशा बिल्ली के भाग से छिंका फूटने जैसी हो गई थी। वे बड़ी आसानी से यह भूल गए कि, १९३९ में कांग्रेस से उन्होंने सुभाषबाबू को अपमानित करके बाहर निकाला था। कांग्रेस ने इस अवसर का पूरा-पूरा फायदा उठाया। पूरे आंदोलन का श्रेय उन्हें मिले और स्वतंत्रता प्राप्ति का ताज भी उन्हीं के सिर पर रहे इसके लिए उन्होंने परदे के पीछे अपना कम शरू किया। आजाद हिंद फौज के अधिकारियों के विरूध्ध जो मामला चल रहा था उनकी तरफ से वकीलों की जो टीम बनी थी उसमें जवाहरलाल नहेरु भी शामिल हो गए। ‘फासिस्ट शक्तियों से समझौता करने वाले सुभाषबाबू से लड़ने के लिए मैं खुद मैदान में उतरूँगा’ इस तरह का दावा करने वाले नेहरू जी अब अवसरवादिता की नई मिसाल खड़ी करा रहे थे। कैप्टन बधवार ने अपने रिपोर्ट में यह लिखा… “कांग्रेस के नेताओं में जो अचानक बदलाव आया इस का कारण उन के मन में उन के पूर्व अध्यक्ष (बोस) के बारे में या उन के नेतृत्व में जो लड़े उन लोगों के प्रति प्यार नहीं था, बल्कि भारत में जगह-जगह जाने के बाद उन्होंने पाया कि, लोगों का जबर्दस्त समर्थन आजाद हिंद सेना के साथ है। इन संदित्प भावनाओं के चलते कांग्रेस यह भूमिका लेने पर मजबूर हो गई।“

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के तीनों प्रवाह के विश्लेषण के बाद हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि, सशस्त्र क्रांतिकारियों के प्रयत्नों के कारण ही ब्रिटिश शासन पर दबाव बनाया जा सका और भारतियों के मन में देशप्रेम और स्वतंत्रता प्राप्ति की आकांक्षा जगाए रखने में सफलता मिली। गांधी जी के अहिंसक आंदोलन ने देश की सामान्य जनता को बड़ी संख्या में स्वतंत्रता संग्रामसे जोड़ दिया। बल्कि इन दोनों प्रवाहों से निरंतर होने वाली घटनाओं की कोई शृंखला नहीं बनी जिसकी बढ़ती तीव्रता या आवेग के कारण अंततः भारत को स्वाधीन करने का निर्णय अंग्रेजों को लेना अनिवार्य हो गया। एक ही घटनाक्रम इस प्रकार का दिखात है जिसके आवेग के कारण उसकी परिणीति भारत की स्वतंत्रता में हुई होगी। भारत की स्वतंत्रता तक पहुँचने वाली घटनाओं की शृंखला शरू होती है सुभाषबाबू द्वारा दिए गए ‘चलो दिल्ली’ इस जादुई मंत्र की घोषणा से।

इसलिए भारतीय स्वतंत्रता के सच्चे शिल्पकार है सुभाष चंद्र बोस।

एसा नहीं कि अन्य नेताओं का भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कोई योगदान नहीं था। सैंकड़ों सशस्त्र क्रांतिकारीयों और गांधी जी के अहिंसक आंदोलन में भाग लेने वाले हजारों भारतीय नागरिकों का त्याग, देशभक्ति और राष्ट्रप्रेम अविवादित है। यह सभी प्रवाह और प्रयत्न हमारे लिए अभिमान का विषय हैं। परंतु सीमित समय में घटनाओं की एसी शृंखला जिसके बढ़ते आवेग की परिणीति स्वतंत्रता में हो एसा घटनाक्रम केवल आजाद हिंद फौज की क्रांति के कारण ही बना है इसे नकारना असंभव है।

बाबासाहेब अंबेडकर की १९९५ मे बीबीसी के साथ एक भेंटवार्ता रिकॉर्ड हुई थी। इसमें वार्ताकार ने उनसे प्रश्न पूछा था कि, अंग्रेज़ो ने भारत को किन कारणों से स्वतंत्रता दी थी। इस पर बाबासाहेब ने उत्तर दिया… “सुभाष चंद्र बोस द्वारा संगठित आजाद हिंद फौज के कारण। तब अंग्रेज़ इतने आत्मविश्वास से भारत पर राज कर रहे थे कि, भारत में कुछ भी हो जाए, राजनीतिज्ञ चाहे कुछ भी कर लें भारतीय सैनिकों की निष्ठा अक्षुण्ण रहेगी। उस एक आधार पर उन्होंने भारत में शासन स्थापित किया था और उनका वही आधार पूरी तरह ढह गया। उन्हें समझ आ गया कि सैनिकों को प्रेरणा दे कर उनका शासन उखाड़ फेंकना अब संभव है।“

रंजन बोहरा अपनी पुस्तक Historical Journal of India के एक शोध निबंध में भारत की स्वतंत्रता को आजाद हिंद फौज की क्रांति का परिणाम बताते हुए कहते हैं… “गांधी की ‘आध्यात्मिक शक्ति’ से चलाए कांग्रेस के आंदोलन ने ब्रिटीशों को भारत छोडने पर मजबूर किया, इस बात पर बचपन से भरोसा करते आए बहुसंख्यक भारतवासियों के लिए यह निःसंदेह सत्य किसी सदमे की तरह होगा। लेकिन सबूत और इतिहास का तर्क सभी इस आकर्षक लेकिन बचकानी काल्पनिक कहानी के खिलाफ हैं। किसी ‘आध्यात्मिक शक्ति’ ने नहीं बल्कि भारतीय सशस्त्र दलों की बगावत के डर ने स्वतंत्रता की मांग को शक्ति प्रदान की। ब्रिटिश यह समझ गए थे कि, जितनी जल्दी वे भारत से चलते बनेंगे उतना ही उनके लिए अच्छा होगा, क्योंकि उस वक्त भारत में तीस लाख सशस्त्र सैनिक मौजूद थे।“

यहाँ यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है कि दरबारी इतिहासकारों का यह कथन, कांग्रेस द्वारा किए गए आंदोलन के कारण अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्रता देने का निर्णय लिया था, बैठकें तो केवल कार्यवाही तय करने के लिए हो रही थी, निरा झूठ ही है।

भारत को स्वतंत्रता क्यों और कैसे मिली इस चर्चा को पूर्णविराम देने का अधिकार केवल एक ही व्यक्ति के पास है। जिनके प्रधानमंत्री पद के कार्यकाल में ब्रिटन ने भारत को स्वाधीन करने का निर्णय लिया, वे है सर क्लेमेंट एटली। सर क्लेमेंट एटली, कलकत्ता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी. बी. चक्रवर्ती जब पश्चिम बंगाल के अस्थायी राज्यपाल थे, उस समय उनके आमंत्रण पर कलकत्ता पधारे थे। अपने कलकत्ता यात्रा के दौरान जब चक्रवर्ती ने एटली से पूछा कि, १९४२ का भारत छोड़ो आंदोलन विफल हो चुका था एसे में १९४७ में क्या दबाव था कि जिसके कारण आनन-फानन भारत छोड़ने का निर्णय लिया गया…??? इस पर एटली ने उत्तर दिया था…

“सुभाष चंद्र बोस की सशस्त्र बगावत के बाद भारतीय सैनिक और नाविकों की ब्रिटिश राजसिंहासन के प्रति निष्ठा संदेह के घेरे में आ गई थी।“

चक्रवर्ती बताते है कि चर्चा में जब उन्होंने एटली से आगे पूछा, “भारत छोड़कर जाने के अंग्रेजों के निर्णय पर गांधी जी के आंदोलन का कितना प्रभाव था”

चक्रवर्ती कहते है कि, यह प्रश्न सुनने के बाद एटली के चेहरे पर हँसी छा गई। अपने एक एक अक्षर पर ज़ोर देते हुए उन्होंने कहा, “मि-नि-म-ल (कम से कम)”

भारत छोड़कर जाते समय अंग्रेजों ने अपने लंबे फायदे के लिए भारत का तंत्र अपने ही हाथों में रखने के लिए भारत को स्वतंत्र न करके सिर्फ स्वाधीन बनाए रखने के लिए दो काम किए। पहला भारत को दो टुकड़े करके पाकिस्तान का निर्माण। साथ ही भारतीय राजाओं और रजवाड़ों को अपनी इच्छा के अनुसार भारत या पाकिस्तान में शामिल होने की छुट देना जिससे कि भारत ओर खंडित हो। परंतु सरदार पटेल जी के कुशल नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ अपने मनसूबे में कामयाब नहीं हो सके।

दूसरा अंग्रेज़ो ने जाते हुए भारत का कामकाज, भारत की बागडोर आचार-विचार, शिक्षा और तरबियत से अंग्रेज़ लगने वाले नहेरु और उनके जैसे लोगों के हाथ में सौंप दी। भारत की प्राचीन संस्कृति, वेषभूषा, परंपरा, भाषा, रीति-रिवाज आदि के प्रति मन में उपहास और तुच्छता की भावना रखने वाले नए शासक वर्ग के कारण स्वाधीन भारत की स्थिति कुछ इस प्रकार हो गई कि, “गोरे साहब ने जाते हुए काले अंग्रेजों को शासन सौंपा”। भारत के अंतिम वाइसरॉय लॉर्ड माउंटबेटन और उनकी पत्नी ने नहेरु जी से घनिष्ठ सबंध स्थापित करते हुए उनके द्वारा अपने पक्ष में सभी निर्णय करावा लिए। इसलिए स्वतंत्र पाकिस्तान के पहले गवर्नर जनरल बैरिस्टर जिन्ना थे तो स्वाधीन भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन। आजाद हिंद फौज के जो लोग पाकिस्तान गए उन जवानों को पाकिस्तानी सेना में भर्ती करा लिया गया लेकिन स्वाधीन भारत की सेना में उन्हें कोई स्थान नहीं मिला। सुभाष चंद्र बोस के परिजनों पर निरंतर निगाह रखी गई और प्राप्त सूचना सालों साल ब्रिटेन की सेक्रेटरी सर्विस M१५ को दी जाती रही। स्वाधीन भारत के वायुसेना के प्रमुख पद पर १९५४ तक और नौसेना के प्रमुख पद पर १९५७ तक ब्रिटिश अधिकारी की नियुक्ति होती थी। इस लिए २०० साल तक भारत को पूरी तरह लूटने के बाद भी अंग्रेजोंने सौहार्दपूर्ण सबंधों के नाम पर अपने पक्ष में निर्णय लेने की चतुराई दिखाई ताकि भारत पर हमेशा उनकी पकड़ बनी रहे। एक तरह से नेहरू जी अंग्रेजों की ही विरासत सँजो रहे थे।

१८५७ की क्रांति में हिंदू और मुसलमानों ने संगठित होकर अंग्रेजों का सामना किया था लेकिन फिर भी सिख, गोरखा, डोगरा आदि ने अंग्रेजों का साथ दिया। वहीं दक्षिण भारत में इस क्रांति के कुछ ज्यादा परिणाम देखने को नहीं मिले थे। इन कारणों से अंग्रेजों को उस क्रांति को दबाना सहज संभव हो सका। इस पूरे प्रकरण से अंग्रेज यह समाज गए थे कि भारतियों को कभी भी संगठित होने देने का अवसर न देने में ही उनकी भलाई है। इसलिए अपने शासन की सुरक्षा के लिए अंग्रेजों ने निरंतर धर्म, जाति, समुदाय और नस्लों के आधार पर भारतीय समाज में ज्यादा से ज्यादा फूट डालने का काम जारी रखा। उन्होंने एक ऐसा चित्र प्रदर्शित करने की कोशिश की कि, कलह और विवादों में घिरे हुए भारतीय समाज पर शासन करने के लिए विदेशी शक्ति की ही आवश्यकता है। एसी शक्ति जो तटस्थ होकर सभी पक्षों के साथ योग्य न्याय कर सकें और समानता के भाव से शासन करा सकें। स्वाधीनता के बाद इन परिस्थितियों को बदलकर भारतीय समाज को संगठित करने के लिए प्रयत्न किए जाने चाहिए थे। लेकिन पहले से ही विभक्त समाज को ओर विभाजित करके, खंडित समाज को खंडित ही रखते हुए, किसी भी पक्ष से नजदीकी न बढ़ाते हुए एक तटस्थ शासन व्यवस्था की जरूरत पर ही ज़ोर दिया गया। स्वाधीनता के पहले निष्पक्ष शक्ति का यहा स्थान अंग्रेजों को प्राप्त था तो स्वाधीन भारत में यह स्थान नहरु-गांधी परिवार को मिला। इस प्रकार नहेरु और उनके परिवार के लोग अंग्रेजों के मार्ग का ही अनुसरण करते दिखाई देते है। निष्पक्षता बनाए रखने के लिए जो स्वयं को हिंदू धर्म की परंपरा से समझते-बुझते बहुत दूर करा लिया। इसलिए नहेरु-गांधी परिवार का शासन यानि “गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेजों” द्वारा किया गया शासन था। यद्यपि राष्ट्रीय स्तर पर अब यह स्थिति नहीं है।

भारत को स्वाधीनता कैसे मिली इस बात के अनेकों प्रमाण प्रस्तुत करने के बाद भी दरबारी इतिहासकारों ने भारत की स्वाधीनता के लिए अहिंसक आंदोलन को इतिहास के रूपमें धनिष्ठित करा दिया। अंग्रेजों के लिए भी यहा मिथ्या कथन फायदेमंद था। डर के साए में भारत से पलायन करने की शर्मिंदगी से बचने के लिए यह मानना बेहतर था कि, गांधी जी और नहेरु जी के शांतिपूर्ण आंदोलनों को सकारात्मक प्रतिक्रीया देते हुए उन्होंने स्वेच्छा से भारत को स्वाधीन किया। इससे उनकी उदारवादी छवि ओर अधिक उजागर होती थी। इसलिए ऐसे मिथ्या इतिहास को गढ़ने में अंग्रेजों ने भी सक्रिय सहभागिता की। नहेरु जी को तो मानो अनंतकाल के लिए भारत पर निर्विरोध शासन करनेका वरदान ही मिल गया। एक बार गांधी जी के अहिंसक आंदोलन को एकमेव आइडिया ऑफ इंडिया और नहेरु जी इस संकल्पना के एकमेव वारिस तय कर लेने के बाद गांधी-नहेरु प्रणीत इस कल्पना के प्रति जो भी संदेह उपस्थित करेगा उसे भारत के राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिधि से बाहर फेंक देना मुश्किल नहीं था। और हुआ भी ऐसा ही। गांधी जी और नहेरु जी को छोड़ दें तो भारतीय स्वाधीनता संग्राम में अन्य महान नेताओं व क्रांतिकारियों ने जो योगदान दिया उसे लगभग नगण्य ही समझा गया या फिर उसे बेहद मामूली बताते हुए उनको केवल उल्लेख ही किए गए। गांधी जी और नहेरु जी की प्रेरणा से हुए अहिंसक आंदोलन को छोड़कर भारत की स्वतंत्रता संग्राम में अन्य सभी प्रवाहों का अस्तित्व इतिहास से लगभग हटा ही दिया गया। भारत को अहिंसा के मार्ग से ही स्वाधीनता मिली है इस धारणा की जड़े इतनी गहराई तक पनप चुकी थीं कि अब किसी के मन में उसके लिए संदेह पैदा हो ही नहीं सकता था।

बगैर किसी संकोच के धड़ल्ले से यह असत्य बताया जाने लगा कि १९४२ का असफल भारत छोड़ो आंदोलन जो कोई खास परिणाम नहीं दिखा सका था, वह एक निर्णायक आंदोलन था, जिसके कारण स्वतंत्रता प्राप्त महज एक औपचारिकता बची हुई थी।

यह कभी नहीं बताया जाता कि नमक सत्याग्रह के बाद हुए आंदोलन के कारण नमक पर लगा हुआ कर्ज कभी भी रद्द नहीं हुआ। कहना होगा कि यह भारत के इतिहास की सबसे बड़ी भ्रांतियों में से एक है।

भारत की स्वाधीनता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली आजाद हिंद फौज और उनके जवानों की तो पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई। न तो उन्हें भारत की सेना में स्थान मिला और न ही उन्हें किसी प्रकार का राष्ट्रिय सम्मान ही दिया गया। इस अन्याय को दूर होने के लिए २०१८ तक हमें राह देखनी पड़ी। २१ अक्टूबर, १९४३ को नेताजी सुभाषबाबू ने सिंगापूर से स्वतंत्र भारत की पहली सरकार की स्थापना की थी तब इस सरकार को १२ देशों ने मान्यता भी दी थी। २१ अक्टूबर, २०१८ को इस ऐतिहासिक घटना की वर्षगाँठ के अवसर देश के मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेद्र मोदी जी ने लाल किले से भारत का राष्ट्रध्वज फहराया। इस अवसर पर आजाद हिंफ फौज के नाइक लालती राम और सुभाष चंद्र बोस के भतीजे चंद्र कुमार बोस उपस्थित थे। लाल किले के जिस स्थान पर आजाद हिंद फौज के अधिकारियों पर मुकदमा चलाया गया था उस स्थान पर प्रधानमंत्री जी द्वारा ‘नेताजी बोस आईएनए संग्रहालय की आधारशिला भी रखी गई। जापान द्वारा अंडमान के दो द्वीप अंडमान और निकोबार सुभाष चंद्र बोस की आजाद हिंद सरकार को सौंप दिए गए थे, उन्हीं स्थानों पर प्रधानमंत्री जी ने दिसंबर २०१८ को एक समारोह में झंडा फहराते हुए हमारे इतिहाससे मिटा दी गई उस रोमांचक घटना की सबको याद दिलाई। २६ जनवरी, २०१९ को सत्तरवें गणतंत्र दिवस की परेड में आजाद हिंद फौज के ९० वर्ष के वयोवृद्ध चार सैनिक सेना की जीप में शामिल हुए। आनंद, अभिमान और कृतज्ञता की भावना जो उनकी आँखों से अश्रु के रूप में बह रही थी वह साफ देखि जा सकती थी। देर से ही सही, “कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गए जा, ज़िदगी है कौम की, तो कौम पर लुटाए जा” इस देशभक्ति से ओतप्रोत गीत से ब्रिटिश साम्राज्य को ललकारने वाले निडर जाँबाज योद्धाओं के प्रति राष्ट्र ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए २०२१ में पराक्रम दिवस के अवसर पर नेताजी की होलोग्राम प्रतिमा का अनावरण किया था उसी इंडिया गेट पर स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा का अनावरण करके प्रधानमंत्री जी ने सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा पर पुष्पांजलि अर्पित की और नेताजी को यथोचित सम्मान दिया। ग्रेनाइट से बनी यह प्रतिमा हमारे स्वतंत्रता संग्राम में नेताजी के योगदान के लिए यह देश उनके प्रति ऋणी होने का प्रतीक बनके रहेगी। निश्चित ही वह क्षण एक सच्चे भारतीय के स्मृति पटल पर सदा के लिए अंकित रहेगा। इंडिया गेट पर नेताजी की मूर्ति प्राप्त करने में हमें कई साल लग गए। नेताजी समेत आईएनए के सभी जबाज़ योद्धाओं को अगर हमें सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस जी की १२६वीं जन्म जयंती पर हमें आज यह प्रण लेना है कि आने वाले समय में हम इसी दिशा में कार्य करते हुए सरकार से यह मांग जारी रखेंगे कि नेताजी सुभाषबाबू से जुड़े सभी गुप्त दस्तावेज़ देश के सामने सार्वजनिक हो और देश की स्वतंत्रता का मिथ्या इतिहास नाबूद करके वास्तविक इतिहास पाठ्यपुस्तकों में आए। साथ ही आईएनए के २६,००० बलिदानियों के लिए एक लंबे अतिदेय युद्ध स्मारक का निर्माण करके आईएनए के पुनर्वास के इस अधूरे एजेंडे को पूरा करें। जब तक हमारी यह मांग स्वीकार नहीं होती तबतक हम इस कार्य के लिए कटिबद्ध रहेंगे। इस कार्य की सार्थकता ही उन्हें हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होंगी…!!!

  • हिरेन वी. गजेरा

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