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श्रीमद्द भगवद् गीता के इतिहास को हम सब लगभग 5000 वर्ष पूर्व का मानते हैं। भगवद् गीता के इस इतिहास से परे हमें कभी भी गीताजी के प्राचीन इतिहास को जानने की जिज्ञासा नहीं हुई।

जैसा कि हम जानते हैं, सूर्य सभी ग्रहों के राजा है, जो गर्मी और प्रकाश प्रदान करके अन्य ग्रहों को नियंत्रित करता है। सूर्य भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा के तहत घूमते हैं और भगवान श्रीकृष्ण ने भगवद् गीता के विज्ञान को समझाने के लिए विवस्वान(सूर्य भगवान) को अपना पहला शिष्य बनाया। अत: गीता किसी साधारण सांसारिक विद्वान के लिए तर्क करने का विवरण नहीं है, बल्कि ज्ञान-विज्ञान का एक आधिकारिक ग्रंथ है जो अनंत काल से प्रचलित है।

भगवद् गीता का इतिहास कितना प्राचीन है इसका प्रमाण हमें महाभारत के शांति पर्व के इस श्लोक से मिलता है…

त्रेतायुगादौ च ततो विवस्वान्मनवे ददौ |
मनुश्र्च लोकभृत्यर्थं सुतायेक्ष्वाक्वे ददौ |
इक्ष्वाकुणा च कथितो व्याप्य लोकानवस्थितः ||

 

अर्थात: “त्रेता युग के आरंभ में, विवस्वान(सूर्यदेव) ने मनु को भगवान का यह विज्ञान दिया। मनुष्य जाति के पिता मनु ने इसे अपने पुत्र महाराजा इक्ष्वाकु को दिया था। इक्ष्वाकु इस धरती के राजा और रघुवंश के पूर्वज थे, जिसमें भगवान श्री राम प्रकट हुए थे।” इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता महाराजा इक्ष्वाकु के समय से ही मानव समाज में विद्यमान थी।

 

वर्तमान समय में हमने कलियुग के 5,000 वर्ष पार किये हैं, जबकि कलियुग की अवधि 4,32,000 वर्ष है। कलियुग से पहले आठ लाख वर्ष की अवधि वाला द्वापरयुग था और उससे पहले बारह लाख वर्ष की अवधि वाला त्रेतायुग था। इस प्रकार, लगभग 20,005,000 वर्ष पहले, मनु भगवान ने अपने पुत्र और शिष्य, पृथ्वी ग्रह के राजा इक्ष्वाकु को भगवद् गीता सुनाई। वर्तमान भगवान मनु का जीवनकाल लगभग 30,53,00,000 वर्ष है, जिसमें से 12,04,00,000 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। हम स्वीकार करलें कि मनु के जन्म से पहले भगवान ने अपने शिष्य सूर्यदेव(विवस्वान्) को गीता सुनाई थी। तो इस प्रकार गीता का पहली बार उल्लेख कम से कम 12,04,00,000 साल पहले किया गया था और यह मानव समाज में 20 लाख से अधिक वर्षों से विद्यमान है। लगभग पांच हजार वर्ष पहले भगवान ने अर्जुन को यह विज्ञान दोबारा बताया था। स्वयं गीता के अनुसार और इसका गान करने वाले भगवान श्रीकृष्ण के कथन अनुसार गीता के प्राचीन इतिहास का यह एक गणितीक अनुमान है। विवस्वान(सूर्य देव) को इसलिए कहा जाता था, क्योंकि वे भी क्षत्रिय थे और सूर्य देव सभी सूर्यवंशी क्षत्रियों के पिता थे। स्वयं पूर्ण पुरूषोत्तम परमेश्वर के मुखारविंद से कही गई यह श्रीमद्भगवद्गीता वेदतुल्य है, इसलिए अतः यह ज्ञान अपौरूषेय है। भगवान ने इसे सूर्य देव को बताया, सूर्य भगवान ने इसे अपने पुत्र मनु को बताया और मनु ने इसे अपने पुत्र इक्ष्वाकु को बताया। यह सर्वोच्च विज्ञान गुरु-शिष्य परंपरा से प्राप्त हुआ था और राजर्षिओं ने भी इसे इसी तरह जाना। लेकिन समय के साथ यह परंपरा टूट गई और अतः यह ज्ञान रूपी विज्ञान लगभग लुप्तप्राय प्रतीत होता है।

भगवद् गीता की रचना विशेष रूप से तपस्वी राजाओं के लिए की गई थी, क्योंकि उसे अपने शासन के माध्यम से गीता के उद्देश्यों का लाभ लोगों तक पाहुचना था।  निस्संदेह, भगवद् गीता कभी भी राक्षसी मनुष्यों के लिए नहीं थी। ऐसे लोग इसका मूल्यह्रास कर किसी का हित साधने वाले नहीं थे और अपने मनमुताबिक इसकी व्याख्या करने वाले थे। अतः जब पाखंडी भाष्यकारों के स्वार्थ के कारण गीता का मूल आशय बिखर गया, तभी गुरु-शिष्य परंपरा को पुनः स्थापित करने की आवश्यकता उत्पन्न हुई। पांच हजार साल पहले जब भगवान ने स्वयं देखा कि गुरु-शिष्य परंपरा टूट गई है, तो भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं महाभारत के माध्यम से अर्जुन को यह प्राचीन योग, भगवान के साथ संबंध का विज्ञान बताया। ऐसा कहा जाता है कि गीताजी के शब्द आज भी ब्रह्मांड में विद्यमान हैं। लेकिन आधुनिक समय में मनुष्य ने इसे समझने की दैवीय शक्ति खो दी है।

मनुष्य के असुर और भक्त जैसे दो वर्ग हैं। अर्जुन भक्त होने के कारण भगवान ने उसे इस महान विज्ञान को समझने के योग्य समझा, परंतु एक असुर के लिए इस महान रहस्यमय विज्ञान को समझना असंभव है। इस महान विश्वकोश के अनेक संस्करण उपलब्ध हैं। स्वाभाविक है कि श्रीमद्भगवत गीता के बारे में इतना प्राचीन इतिहास जानने के बाद आपके मन में कई सवाल उठने लगे होंगे। जब अर्जुन के मन में इस ज्ञान विज्ञान के बारे में संदेह उत्पन्न होता है, तो अर्जुन गीताजी के चौथे अध्याय में इस श्लोक के माध्यम से भगवान कृष्ण से प्रश्न करते हैं…

अपरं भवतो जन्म परं जन्म विस्वतः।

कथमेतद्विजानीयां त्वमादौ प्रोक्तवानिति॥4॥

अर्थात: “आपका जन्म पुरातन काल में हुआ था और सूर्य भगवान (विवस्वान) का जन्म प्राचीन काल में हुआ था; फिर, मैं कैसे समझूं कि प्राचीन काल में आपने उन्हें यह विज्ञान का उपदेश दिया था ?

 

अर्जुन तो भगवान के स्वीकृत भक्त थे, फिर उसे कृष्ण के वचन पर विश्वास क्यों नहीं हुआ ? सच तो यह है कि अर्जुन यह जिज्ञासा अपने लिए नहीं, बल्कि उन असुरों के लिए दिखा रहे है जो भगवान में विश्वास नहीं करते या जो श्रीकृष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान मानना ​​पसंद नहीं करते। जो कृष्ण को भौतिक प्रकृति के गुणों के अधीन एक सामान्य इंसान मानते हैं, उन लोगों के नास्तिक दृष्टिकोण को चुनौती देने का प्रयास करते हुए जब अर्जुन एक भक्त के रूप में भगवान से यह प्रश्न पूछते हैं, तो भगवान इस श्लोक में उन्हें उत्तर देते हैं…

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।
तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप ॥5॥

अर्थत : “तुम्हारे और मेरे अनेक जन्म हो चुके हैं। मैं उन सभी को याद कर सकता हूं, लेकिन हे परंतपा, आप उन्हें याद नहीं कर सकते।

 

हमारे वेदों में भी कहा गया है कि ईश्वर अद्वितीय होते हुए भी असंख्य रूपों में प्रकट होते है। वह वैदुरमणि की तरह है जो अपना रंग बदलता है लेकिन रहता वही है। उनके अनुसार प्रत्येक वस्तु आत्मा है, जबकि बद्धजीव अपने भौतिक शरीर से भिन्न है। भगवान का शरीर और आत्मा एक ही हैं जिसका स्पष्टीकरण हम भगवद् गीता के चौथे अध्याय के इस श्लोक में पाते हैं…

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया॥6॥

अर्थ: यद्यपि मैं अजन्मा हूं और मेरा दिव्य शरीर कभी नष्ट नहीं होता है, और मैं सभी जीवित प्राणियों का स्वामी हूं, फिर भी मैं हर युग में अपने दिव्य, मूल रूप में प्रकट होता हूं।

 

जिस प्रकार एक सामान्य प्राणी देहांत के बाद एक शरीर से दूसरे शरीर में अपना स्वरूप बदलता है, उस प्रकार भगवान अपना शरीर नहीं बदलते। एक बद्धजीव के पास इस जन्म में जिस प्रकार का शरीर हो सकता है, उसके अगले जन्म में इससे एक अलग प्रकार का शरीर होता है। भौतिक जगत में बद्धजीव का कोई स्थायी शरीर नहीं होता, बल्कि वह एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाता है। लेकिन भगवान ऐसा नहीं करते। जब वे प्रकट होते हैं, तो अपनी आंतरिक शक्ति के माध्यम से वे अपने मूल शरीर में प्रकट होते हैं। जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है तो हम मानते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब सूर्य हमारी दृष्टि के सामने होता है तो हम मानते हैं कि वह क्षितिज पर है। वस्तुतः सूर्य सदैव अपने निश्चित स्थान पर ही रहता है। लेकिन हमारी अपूर्ण और दोषपूर्ण इंद्रियों के कारण हम सूर्य को आकाश में उदय और अस्त हुए देखते हैं। भगवान का प्रकट्य और अप्रकट्य सामान्य जीव से सर्वथा भिन्न होने के कारण यह स्पष्ट होता है कि वो सनातन(शाश्वत) है, अपनी अतरंग शक्ति से आनंदित और दीप्तिमान है और वे कभी भी भौतिक प्रकृति से अशुद्ध नहीं होते हैं। हमारे वेद भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि ईश्वर अजन्मे होते हुए भी अनेक रूपों में जन्म लेते हुआ प्रतीत होता है। वेदों के पूरक शास्त्र भी इस बात की पुष्टि करते हैं कि भगवान भले ही हमें जन्म लेते प्रतीत होते हो लेकिन वह अपना शरीर नहीं बदलते हैं। अब नास्तिक और राक्षसी मंशा धारी लोग ईश्वर जैसा कुछ मानते ही नहीं। उनकी अल्पबुद्धि के अनुसार इस संसार में ईश्वर के प्रकट तथा अप्रकट होने जैसा कुछ भी नहीं होता। इस सब को श्रीमद्भगवद्गीता के इस श्लोक का अध्ययन करना चाहिए…

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्‌ ॥7॥

उक्त श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे भरतवंशी, जहां भी और जब भी धर्म का पतन होता है और अधर्म का वर्चस्व जमता है, तब मैं स्वयं अवतार लेता हूं।”

 

जब अधर्म का साम्राज्य जम जाता है और सच्चा धर्म लुप्त हो जाता है, तब वे स्वेच्छा से प्रकट होते हैं। भगवद् गीता से हमे ज्ञात होता है कि भगवान बुद्ध कृष्ण के अवतार हैं। जब भौतिकवाद अपनी चरम सीमा पर था और भौतिकवादी लोग वेदों के बहाने लोगों के साथ मनस्वी व्यवहार करने लगे थे, तब बुद्ध अवतार हुआ। हालाँकि वेदों में कुछ विशिष्ट कार्यों के लिए पशु बलि के बारे में कुछ सीमित नियम थे, लेकिन राक्षसी प्रकृति के मनुष्य वैदिक नियमों की परवाह किए बिना पशु बलि का व्यवहार करते थे। इस अनैतिकता को रोकने और अहिंसा के वैदिक सिद्धांत को स्थापित करने के लिए भगवान बुद्ध का अवतार हुआ। इसलिए, भगवान के प्रत्येक अवतार का एक विशिष्ट उद्देश्य होता है और उन सभी का वर्णन वैदिक ग्रंथों में किया गया है। अपने प्रत्येक अवतार में वे धर्म के बारे में उतना ही कहते हैं जितना उस समय का मनुष्य उस स्थिति में समझ सकता है। लेकिन सभी अवतार में उद्देश्य एक ही है और वह है लोगों को ईश्वरोन्मुख बनाना और धर्म के सिद्धांतों का पालन करवाना। वर्तमान समय में वामपंथी विचारों से ग्रस्त मनुष्यों को अपनी जाति, पंथ, संप्रदाय के भेदभाव से ऊपर उठकर एकात्म होकर सार्थक मानव जीवन के वास्तविक मूल्य के वैज्ञानिक दर्शन कराते विश्व के एकमात्र सनातनी ग्रंथ “श्रीमद्द भगवद् गीता ” के विज्ञान को उसके वास्तविक स्वरूप में समझकर अपने जीवन निर्वहन में उसे अमल में लाना चाहिए..!!!

 

– हिरेन वी. गजेरा